Janmashtami जन्माष्टमी 2020
Janmashtami जन्माष्टमी 2020
जन्माष्टमी - भगवदीयआनंददेनेवालाश्रीकृष्णावतार
श्रीकृष्ण प्रेममूर्ति हैं और
श्रीकृष्ण का धर्म है आनंद। दुःखी, चिंतित, भयभीत व समाज में शोषित सभी मनुष्यों
को शांति और आनंद की आवश्यकता है। श्रीकृष्ण और श्रीकृष्ण-तत्त्व में जगे हुए
महापुरुष सभीको आनंदित करते हैं। भगवान कृष्ण मक्खन-मिश्री देकर भी आनंद देते हैं
तो कोई महापुरुष गुरु-प्रसाद देकर भी आनंद बरसाते हैं।
जीव में गुण भी होते हैं और दोष भी होते हैं, अशांति भी होती है, दुःख भी होता है लेकिन महापुरुष और भगवान के दर्शन-सत्संग से, भगवान की लीला से, महापुरुषों की चेष्टा से जीव के दोष मिटने लगते हैं, चित्त में भक्ति, प्रसन्नता और आनंद आने लगता है। आपके हृदय में सच्चिदानंद का ‘आनंदस्वभाव’ प्रकट करने के लिए, अंतरात्मा के आनंद को जगाने के लिए ही श्रीकृष्ण अवतार और संत-सान्निध्य है।
प्रेम की बोली का नाम गीत है और प्रेम की चाल का नाम नृत्य है। जीवन केवल आपाधापी करने के लिए नहीं है, जीवन नृत्य के लिए भी है, गीत के लिए भी है, आनंद-आह्लाद के लिए भी है, विश्रांति के लिए भी है और विश्रांति के मूल को जानकर मुक्त होने के लिए भी है। जीवन का सर्वांगीण विकास होना चाहिए। श्रीकृष्ण के जीवन में वह भी है।
भगवान बँध जाते हैं तो भी हँस रहे हैं। भागना पड़ता है तो भाग भी लेते हैं लेकिन अंदर से कायरता नहीं। युद्ध करना पड़ता है तो कर लेते हैं लेकिन क्रूरता नहीं।
मैया को कहते हैं : ‘‘माँ-माँ ! मक्खन लाओ।’’
‘‘अभी दोपहर को मक्खन नहीं खाते।’’
‘‘तो कब खाते हैं ?’’
‘‘सुबह।’’
‘‘तो अब क्या ?’’
‘‘शाम होगी तो दूध पियेंगे।’’
‘‘तो माँ दूध दे दो।’’
‘‘अरे, अभी दोपहर है।’’
‘‘माँ ! आँखें बंद करके देखो, संध्या हो गयी न ! माँ ! देखो रात हो गयी।’’ इस प्रकार माँ को मधुरता देते हैं, भला उनको दूध की क्या जरूरत है!
दुःख से, धोखे से, चिंता से भरी हुई सृष्टि में आत्म-मधुरता का स्वाद चखानेवाले अवतार का नाम है कृष्ण अवतार।
आप ऐसा मत समझना कि श्रीकृष्ण के जीवन में रसिया गीत, बंसी व नाच-गान ही थे। रसिया गीत और बंसी वाले श्रीकृष्ण के जीवन में ज्ञान की गम्भीरता, योग की ऊँचाई, कर्म की निष्ठा और नैर्ष्कम्यता की पराकाष्ठा भी थी।
मनुष्य के जीवन में जितनी भी मुसीबतें और कठिनाइयाँ आ सकती हैं, उससे भी ज्यादा कठिनाइयाँ इस प्रेमावतार के जीवन में थीं। और कोई होता तो दुःख से रो-रो के मरे और फिर दूसरे जन्म में भी वही दुःख रोये, इतना दुःख श्रीकृष्ण के जीवन में था। लेकिन कभी सिर पकड़ के उदास नहीं हुए, कभी फरियाद नहीं की। श्रीकृष्ण के जन्म के निमित्त ही माँ-बाप को जेल जाना पड़ा। उनके जन्म से पहले 6 भाइयों को मौत के घाट उतरना पड़ा। जन्मे तो जेल में और जन्मते ही पराये घर ले जाये गये, ऐसा भयावह जीवन ! आपको तो जन्मते ही टोकरी में कोई उठाकर नहीं ले जाता है, शुक्र करो। इतना बड़ा भारी दुःख तुम्हारे इष्ट को मिला तो भी मुस्कराते रहे तो तुम काहे को रोते हो ?
बोले, ‘क्या करें ? मेरी नौकरी चली गयी, मेरे धंधे में यह हो गया, वह हो गया...’ अरे ! जन्मते ही भाँजे के पीछे मामा कंस व पूरी राजसत्ता लग गयी, तब भी कृष्ण ने कभी नहीं कहा कि ‘मेरा मामा कंस मेरे पीछे पड़ा है, मैं तो मर गया रे ! हाय रे !...’ 17-17 बार जरासंध को धूलि चटाकर भेजा लेकिन 18वीं बार जरासंध एकाग्र होकर कुछ तत्परता से आया तो श्रीकृष्ण को बलरामसहित भाग जाना पड़ा। ऐसा नहीं कि भगवान हैं तो सफल-ही-सफल होते रहें। भगवान हैं तो अपने-आपमें हैं और दूसरे में भी तो वे ही भगवान हैं। कभी कोई भगवान जीतता है, कभी कोई भगवान की सत्ता काम करती है।
श्रीकृष्ण अनुभवों के बड़े धनी हैं और गीता श्रीकृष्ण के अनुभवों की पोथी है। श्रीकृष्ण ने गीता में कहा : ‘दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः...’ दुःख में उद्विग्न मत हो, यह श्रीकृष्ण ने केवल बोला नहीं है, उनके जीवन में चम-चम चमकता है। ‘सुखेषु विगतस्पृहः...’ सुख में आसक्त न हो। पलकें बिछानेवाली गोपियाँ और ग्वालों ने, यशोदा, नंदबाबा आदि ने श्रीकृष्ण को कितना सुख दिया लेकिन जब व्रज छोड़ा तो मुड़कर देखा भी नहीं। सुख में स्पृहारहित !
तो आप भी जो हो गया सो हो गया, उसके पीछे अभी का वर्तमान व्यर्थ न करो। किसीने प्यार दिया तो दिया, कभी दुःख मिला तो मिला, ये आ-आ के जानेवाले हैं। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं, ‘तुम नित्यस्वरूप रहनेवाले हो, स्वस्थ हो जाओ, ‘स्व’ में स्थित हो जाओ।’ सिर्फ कहते नहीं हैं, उनके जीवन में कदम-कदम पर, डगर-डगर पर ऐसा है।
जीव में गुण भी होते हैं और दोष भी होते हैं, अशांति भी होती है, दुःख भी होता है लेकिन महापुरुष और भगवान के दर्शन-सत्संग से, भगवान की लीला से, महापुरुषों की चेष्टा से जीव के दोष मिटने लगते हैं, चित्त में भक्ति, प्रसन्नता और आनंद आने लगता है। आपके हृदय में सच्चिदानंद का ‘आनंदस्वभाव’ प्रकट करने के लिए, अंतरात्मा के आनंद को जगाने के लिए ही श्रीकृष्ण अवतार और संत-सान्निध्य है।
प्रेम की बोली का नाम गीत है और प्रेम की चाल का नाम नृत्य है। जीवन केवल आपाधापी करने के लिए नहीं है, जीवन नृत्य के लिए भी है, गीत के लिए भी है, आनंद-आह्लाद के लिए भी है, विश्रांति के लिए भी है और विश्रांति के मूल को जानकर मुक्त होने के लिए भी है। जीवन का सर्वांगीण विकास होना चाहिए। श्रीकृष्ण के जीवन में वह भी है।
भगवान बँध जाते हैं तो भी हँस रहे हैं। भागना पड़ता है तो भाग भी लेते हैं लेकिन अंदर से कायरता नहीं। युद्ध करना पड़ता है तो कर लेते हैं लेकिन क्रूरता नहीं।
मैया को कहते हैं : ‘‘माँ-माँ ! मक्खन लाओ।’’
‘‘अभी दोपहर को मक्खन नहीं खाते।’’
‘‘तो कब खाते हैं ?’’
‘‘सुबह।’’
‘‘तो अब क्या ?’’
‘‘शाम होगी तो दूध पियेंगे।’’
‘‘तो माँ दूध दे दो।’’
‘‘अरे, अभी दोपहर है।’’
‘‘माँ ! आँखें बंद करके देखो, संध्या हो गयी न ! माँ ! देखो रात हो गयी।’’ इस प्रकार माँ को मधुरता देते हैं, भला उनको दूध की क्या जरूरत है!
दुःख से, धोखे से, चिंता से भरी हुई सृष्टि में आत्म-मधुरता का स्वाद चखानेवाले अवतार का नाम है कृष्ण अवतार।
आप ऐसा मत समझना कि श्रीकृष्ण के जीवन में रसिया गीत, बंसी व नाच-गान ही थे। रसिया गीत और बंसी वाले श्रीकृष्ण के जीवन में ज्ञान की गम्भीरता, योग की ऊँचाई, कर्म की निष्ठा और नैर्ष्कम्यता की पराकाष्ठा भी थी।
मनुष्य के जीवन में जितनी भी मुसीबतें और कठिनाइयाँ आ सकती हैं, उससे भी ज्यादा कठिनाइयाँ इस प्रेमावतार के जीवन में थीं। और कोई होता तो दुःख से रो-रो के मरे और फिर दूसरे जन्म में भी वही दुःख रोये, इतना दुःख श्रीकृष्ण के जीवन में था। लेकिन कभी सिर पकड़ के उदास नहीं हुए, कभी फरियाद नहीं की। श्रीकृष्ण के जन्म के निमित्त ही माँ-बाप को जेल जाना पड़ा। उनके जन्म से पहले 6 भाइयों को मौत के घाट उतरना पड़ा। जन्मे तो जेल में और जन्मते ही पराये घर ले जाये गये, ऐसा भयावह जीवन ! आपको तो जन्मते ही टोकरी में कोई उठाकर नहीं ले जाता है, शुक्र करो। इतना बड़ा भारी दुःख तुम्हारे इष्ट को मिला तो भी मुस्कराते रहे तो तुम काहे को रोते हो ?
बोले, ‘क्या करें ? मेरी नौकरी चली गयी, मेरे धंधे में यह हो गया, वह हो गया...’ अरे ! जन्मते ही भाँजे के पीछे मामा कंस व पूरी राजसत्ता लग गयी, तब भी कृष्ण ने कभी नहीं कहा कि ‘मेरा मामा कंस मेरे पीछे पड़ा है, मैं तो मर गया रे ! हाय रे !...’ 17-17 बार जरासंध को धूलि चटाकर भेजा लेकिन 18वीं बार जरासंध एकाग्र होकर कुछ तत्परता से आया तो श्रीकृष्ण को बलरामसहित भाग जाना पड़ा। ऐसा नहीं कि भगवान हैं तो सफल-ही-सफल होते रहें। भगवान हैं तो अपने-आपमें हैं और दूसरे में भी तो वे ही भगवान हैं। कभी कोई भगवान जीतता है, कभी कोई भगवान की सत्ता काम करती है।
श्रीकृष्ण अनुभवों के बड़े धनी हैं और गीता श्रीकृष्ण के अनुभवों की पोथी है। श्रीकृष्ण ने गीता में कहा : ‘दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः...’ दुःख में उद्विग्न मत हो, यह श्रीकृष्ण ने केवल बोला नहीं है, उनके जीवन में चम-चम चमकता है। ‘सुखेषु विगतस्पृहः...’ सुख में आसक्त न हो। पलकें बिछानेवाली गोपियाँ और ग्वालों ने, यशोदा, नंदबाबा आदि ने श्रीकृष्ण को कितना सुख दिया लेकिन जब व्रज छोड़ा तो मुड़कर देखा भी नहीं। सुख में स्पृहारहित !
तो आप भी जो हो गया सो हो गया, उसके पीछे अभी का वर्तमान व्यर्थ न करो। किसीने प्यार दिया तो दिया, कभी दुःख मिला तो मिला, ये आ-आ के जानेवाले हैं। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं, ‘तुम नित्यस्वरूप रहनेवाले हो, स्वस्थ हो जाओ, ‘स्व’ में स्थित हो जाओ।’ सिर्फ कहते नहीं हैं, उनके जीवन में कदम-कदम पर, डगर-डगर पर ऐसा है।
लेखक:- विश्वनाथ |
Janmashtami जन्माष्टमी 2020 |
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Very nice
जवाब देंहटाएंNice article
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